वीर रस की परिभाषा, अवयव, प्रकार एवं उदाहरण

इस आर्टिकल में हम आपको वीर रस के बारे में जानकारी देने जा रहे हैं, यहां पर आप वीर रस की परिभाषा, अवयव तथा वीर रस के प्रकार के बारे जानेंगे। वीर रस से सम्बंधित सम्पूर्ण जानकारी के लिए इस लेख को पूरा जरूर पढ़ें।

वीर रस की परिभाषा

जब पंक्तियों में उत्साह, उमंग तथा पराक्रम से सम्बंधित भाव का बोध हो रहा हो तो वहाँ पर वीर रस की उतपत्ति होती है।

यद्ध के समय किसी कहानी काव्य अथवा पंक्तियों को सुनने के बाद सैनिको के मन मे जो वीरता तथा उत्साह का भाव उत्पन्न होता है उसे वीर रस कहा जाता है।

उदाहरण

मैं सत्य कहता हूं, सके सुकुमार न मानो मुझे।

यमराज से भी युद्व को, प्रस्तुत सदा मानो मुझे।।

वीर रस के अवयव

स्थायी भाव :- उत्साह

अनुभाव :- रोंगटे खड़े हो जाना, अंग स्फुरण इत्यादि।

संचारी भाव – उत्सुकता, गर्व, मोह, हर्ष आदि।

आलंबन विभाव :- शत्रु, धार्मिक ग्रंथ पर्व, दयनीय व्यक्ति, तीर्थ स्थान, उत्साह, स्वाभिमान की रक्षा इत्यादि।

उद्दीपन विभाव :- अन्नदाता ओं का दान, शत्रु का पराक्रम, धार्मिक कार्य, दुखियों की सुरक्षा आदि।

वीर रस के प्रकार

वीर रस के चार प्रकार है जो कि निम्नलिखित दिए गए हैं –

  • युद्धवीर
  • दानवीर
  • दयावीर
  • धर्मवीर

1. युद्धवीर

जब युद्ध मे लड़ने के के लिए ह्रदय में वीर रस का प्रवाह हो रहा हो।

बुंदेले हर बोलो के मुख हमने सुनी कहानी थी ।

खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी ।।

2. दानवीर

जब ह्रदय में दीन दुखियों और याचकों को दान करने का उत्साह हो।

जो संपति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।

सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ॥

3. दयावीर

जब ह्रदय में दीन दुखियों पर दया करने का उत्साह हो।

4. धर्मवीर

जब ह्रदय में सभी के साथ सदा धर्म करने का उत्साह हो।

रहते हुए तुमसा सहायक प्रण हुआ पूरा नहीं,

इससे मुझे है जान पड़ता भाग्य बल ही सब कहीं।

जलकर अनल में दूसरा प्रण पालता हूँ मैं अभी,

अच्युत युधिष्ठिर आदि का अब भार है तुम पर सभी।।

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